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कविता

शब्द की वंशी

मधुकर अस्थाना


जब भी बजी
शब्द की वंशी
पीड़ा की निकली।

जाने कैसे
सातों सुर घुलमिल
आँसू में डूबे
धरे रह गए
राग रसीले
नेहिल मंसूबे
बने रहे
जीवन भर
झीलों में बादल बिजली।

बनते रहे
रेत के टीले
या खंदक खाईं
अपने अपने
पिरामिडों में
लोग बोनसाई
जब बात चली तो
उघर गई
अगली पिछली।

ताल-तलैया
पोखर झरने
सबके दिन बहुरे
युग पर युग बीते
पर सूखे स्वप्न
नहीं सिहुरे
जब भी आग लगी
तो नदिया ने
धारा बदली।


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